राजनीति

भाजपा की राजनीतिक भूख बनाम ओपी चौधरी!….जिले की भाजपाई राजनीति में नये समीकरण उभरने के संकेत….क्या चौधरी तोड़ पायेंगे सेठिया राजनीति के तिलिस्म को?

दिनेश मिश्र/रायगढ़. अपनी अभिनव कार्यशैली और मौलिक प्रयोगों के कारण राष्ट्रीय स्तर पर चर्चित युवा कलेक्टर ओपी चौधरी ने अपने पद से इस्तीफा दे दिया और उन्होंने राजनीति में जाने के संकेत दिये हैं । किसी आईएएस अधिकारी के अपने पद से इस्तीफा देकर राजनीति में जाने की यद्यपि यह कोई पहली घटना नहीं है तथापि यह कोई साधारण घटना भी नहीं है । अतः इस घटना को लेकर चर्चाओं का बाजार गर्म होना लाजमी है । प्रदेशभर में अधिकांश चर्चायें उनके निर्णय की उपयुक्तता, उन पर राजनैतिक दबाव, उनकी उपलब्धियां, उनके जीतने की संभावना तथा उनके भविष्य आदि पर केंद्रित हैं । इधर रायगढ़ में जिले की राजनीति पर इस घटना का क्या प्रभाव होगा ? खरसिया में राजनैतिक संघर्ष कैसा होगा तथा ओपी चौधरी को किन भीतरी व बाहरी चुनौतियों से जूझना होगा ? इसे लेकर खासी दिलचस्पी बनी हुई है।

“मिट्टी की सेवा” करने का सुवाक्य केवल आवरण है

आईएएस अधिकारी का पद भारतीय नौकरियों में सर्वाधिक प्रतिष्ठित, आकर्षक व अधिकार सम्पन्न पद है । यह पद किसी व्यक्ति को न केवल सम्मानयुक्त-शानदार निजी जीवन दे सकता है वरन यह उसे मिट्टी की सेवा करने का पर्याप्त व व्यापक अवसर भी प्रदान करता है। ओपी चौधरी द्वारा एक दिन पूर्व राजनीति में नहीं जाने व प्रशासनिक अधिकारी के रूप में ही जनसेवा करते रहने का संकल्प भरा बयान आया था किंतु इस बयान के ठीक अगले दिन उन्होंने “मिट्टी की सेवा” करने के नाम पर अपने पद से इस्तीफा दे दिया । इस उलटफेर भरे घटनाक्रम ने कई आशांकाओं को जन्म दे दिया है । सामान्य चर्चा है कि मिट्टी की सेवा वाली बात केवल भावनात्मक आवरण है, वास्तव में मात्र 24 घंटे के अंतराल में फैसले को एकदम उलट दिये जाने के पीछे कोई बड़ा कारण है ।

क्या मोदी-शाह का था दबाव ?

छत्तीसगढ़ में इस बार सरकार के लचर प्रदर्शन, नेता व अफसरों के खुले भ्रष्टाचार और मंत्रियों के अशोभनीय आचरण के कारण रमन सरकार की छवि बहुत धूमिल हुई है। पार्टी व मीडिया के सर्वेक्षणों में भी लगातार भाजपा के पराजय की रिपोर्ट सामने आ रही है। इसी के मद्दे नजर प्रदेश में लगातार चौथी बार सरकार बनाने को आतुर पार्टी सुप्रीमो अमित शाह एक-एक सीट को लेकर बेहद गंभीर हैं। उन्होंने जब मिशन 65 की रूपरेखा बनायी तो सबसे ऊपर उन सीटों को रखा गया था जिन पर भाजपा कभी भी नहीं जीत दर्ज नहीं कर पायी है तथा इन सीटों के लिये विशेष रणनीति बनाने के निर्देश दिये थे। रायगढ़ जिले की खरसिया विधानसभा सीट इसमें शीर्ष पर है। प्रदेश के रणनीतिकारों द्वारा तमाम विकल्पों को टटोलने के बाद इस सीट के लिये अघरिया जाति के सशक्त उम्मीदवार की तलाश अंततः ओ पी चौधरी पर जाकर ठहर गयी। बताया जाता है कि काफी प्रयास के बावजूद जब वे पूरी तरह तैयार नहीं हुये तो मामला अमित शाह व नरेंद्र मोदी के स्तर पर गया। माना जा रहा है कि मोदी- शाह के स्तर पर कोई ठोस बात हुई और दूसरे ही दिन ओ पी चौधरी अपने बयान से पलट गये। इस तरह भाजपा की राजनीतिक भूख के आगे एक होनहार अधिकारी राजनीति की बिसात का मोहरा बन गया।

आसान नहीं है नन्दकुमार के किले को ढहाना

नंदेली के चौपाल से उठकर प्रदेश के गृहमंत्री के पद को सुशोभित करने वाले नन्दकुमार पटेल ने अपनी अथक संघर्ष क्षमता से न केवल अघरिया-पिछड़ावर्ग स्वाभिमान को जगाया व स्थापित किया वरन उन्होंने प्रचलित राजनीति से अलग हटकर आम लोगों से गहरे आत्मीय रिश्ते कायम करने की राजनीति की। उनके द्वारा बनाई गई इस गहरी पैठ को केवल बड़े ओहदे के आभामंडल या अन्यत्र हासिल उपलब्धियों के सहारे पराजित नहीं किया जा सकता। बेशक उमेश पटेल का राजनैतिक जीवन अल्पकालिक है लेकिन पिछले पांच वर्षों में उमेश ने अपने पिता के पदचिन्हों पर चलकर उनके द्वारा तैयार की गई राजनैतिक जमीन को अपने परिश्रम से बखूबी सींचा है। उमेश की तुलना उनके पिता से करते हुए भाजपाई भले ही उमेश को कमजोर बतलाने का दुष्प्रचार कर रहे हों किंतु विधानसभा के भीतर और बाहर दोनों ही जगह में अपनी दमदार उपस्थिति से उमेश ने यह सिद्ध किया है कि वे नये जरूर हैं किंतु कमजोर बिल्कुल नहीं हैं। उनकी क्षमता व योग्यता के कारण ही वे काँग्रेस की युवा शाखा के प्रदेश अध्यक्ष हैं।

ओ पी चौधरी भी संघर्षों में तप कर सफल होने वाले नौजवान हैं और विगत दो वर्षों में इस क्षेत्र में अपनी सक्रियता से उन्होंने अपना एक समर्थक वर्ग भी बना लिया है। उनका मिलनसार व हंसमुख स्वभाव एक सफल अधिकारी से एक राजनेता की शक्ल में उनके रूपांतरण में सहायक भी होगा लेकिन राजनीति के पथरीले रास्ते में सफलता निजी मेधा अथवा शैक्षणिक प्रतिभा पर निर्भर नहीं होती वरन यह उन कई नैतिक-अनैतिक समझौतों, रास्तों व तिकडमों की भी मोहताज होती है जिसे लोकजीवन में अनुभव से ही पुख्ता ढंग से सीखा जा सकता है।

संक्षेप में, आगामी चुनाव उमेश पटेल के लिये चुनौती भरा जरूर है लेकिन ओपी चौधरी के लिये इस मजबूत कांग्रेसी किले को ढहाना आईएएस तक का कठिन सफर तय करने से कई गुना अधिक कठिन और काँटों भरा सफर होगा। ओ पी चौधरी के रास्ते में सबसे बड़ी रुकावट जिले के भीतर भाजपा में काबिज वे व्यावसायिक शक्तियाँ होंगी जिनका कोई जनाधार नहीं है किंतु जिनका पार्टी पर एकतरफा नियंत्रण है ।

धंधेबाज नेता ही कर देंगे चौधरी का राजनैतिक वध

ओपी चौधरी की पैराशूट लैंडिंग से जिले की भाजपाई राजनीति में नये समीकरणों के उभरने की सुगबुगाहट होने लगी है । हाईकमान के इस बड़े कदम को जिला भाजपा में व्यावसायिक राजनीति के अंत की शुरुआत के रूप में भी देखा जा रहा है ।

दरअसल भाजपा के पितृपुरुष स्व. लखीराम की छत्रछाया में खरसिया व रायगढ़ के वे तमाम खोटे सिक्के राजनीतिक बाजार में ऊंचे दामों पर चल गये जिनकी वास्तविक हैसियत दो कौड़ी की भी नहीं है । अपने वर्चस्व को लेकर हर समय सजग रहने वाले इस विशेष वर्ग ने आरम्भ से ही अपने समकक्ष उभरने वाले अन्य वर्ग से जुड़े नेतृत्व को योजनाबद्ध ढंग से कुचला है । रायगढ़ भाजपा के संस्थापक सदस्य पी के तामस्कर, जनहृदय सम्राट कुमार दिलीप सिंह जूदेव एवं डॉ. शक्राजित नायक इसके प्रामाणिक व बड़े उदाहरण हैं । मौजूदा वक्त में तो भाजपा के भीतर निर्वाचित पदों व संगठन के प्रायः सभी महत्वपूर्ण पदों पर इस वर्ग का एकपक्षीय कब्जा है । यह वर्ग अपने पैसे और पंहुच की ताकत से हमेशा दूसरों के साथ “सांप-सीढ़ी” का खेल खेलता रहता है ।

इन परिस्थितियों में जिले की राजनीति में ओ पी चौधरी का उभरना और स्थापित हो जाना खरसिया हाउस व रायगढ़ के इन व्यावसायिक नेताओं के वर्चस्व के लिये सबसे बड़ा खतरा सिद्ध होगा क्योंकि यदि ओ पी चौधरी विधायक निर्वाचित होते हैं तो भाजपा सरकार बनने की स्थिति में वे पहली ही सूची में किसी बड़े मंत्री पद को सुशोभित करेंगे। इसके साथ ही वे भाजपा में जिले के सबसे अधिक ताकतवर नेता के रूप में स्वाभाविक रूप से स्थापित हो जायेंगे। राष्ट्रीय नेतृत्व तक सीधी पहुंच होने के कारण वे किसी बात के लिये खरसिया हाउस के मोहताज भी नहीं रहेंगे। इधर लंबे समय से व्यावसायिक नेतृत्व के चुंगल से छुटकारा पाने को आतुर पार्टी के जमीनी कार्यकर्ताओं को भी एक शक्तिशाली छत्रप मिल जाने पर वे भी उसकी छतरी के नीचे इकट्ठा हो सकते हैं। इस प्रकार ओ पी चौधरी को जिले में भाजपाई राजनीति की धुरी बनने में देर नहीं लगेगी। क्या सेठिया नेतृत्व वर्षों से जमाया हुआ अपना राजपाट किसी दूसरे वर्ग के नेता को इतनी आसानी से दे देगा ? नहीं , वह कोई न कोई पैंतरेबाजी करके चौधरी साहब को हर हाल में स्थापित होने से रोकना अवश्य चाहेगा।

ये चालाक लोग एक पक्ष में खड़े होकर दूसरे पक्ष को मदद करने की कला के माहिर व पुराने खिलाड़ी हैं। अर्जुन सिंह व दिलीप सिंह जूदेव के चुनाव के दौरान भी इन ताकतों ने पहले जूदेव को अपने कंधे पर बिठाकर पूरे लाव लश्कर के साथ उनकी अगुवानी की और राष्ट्रीय नेतृत्व के समक्ष जूदेव को उभारने का श्रेय ले लिया। तत्पश्चात अंतिम निर्णायक दिनों में इन लोगों ने पर्दे के पीछे अर्जुन सिंह से हाथ मिलाकर दिलीप सिंह जूदेव के पराजय की कहानी लिख दी। आशंका जताई जा रही है कि ओ पी चौधरी के साथ भी इसी खेल की पुनरावृत्ति हो सकती है। दिलीप सिंह की तरह ही आरम्भ में चौधरी साहब के आगमन पर उनके स्वागत सत्कार में ये लोग पलक-पावड़े बिछा देंगे और उनके पूरे चुनावी अभियान को अपने हाथों में लेकर भीतर ही भीतर उनकी जड़ें काट देंगे ताकि स्थापित होने से पहले ही उनका राजनैतिक वध हो जाये। ओ पी चौधरी को स्वयं को इन शातिर व्यावसायिक शक्तियों से सीधा लोहा लेने की नीयत व ताकत रखने वाला एक किसान पुत्र साबित करना अन्यथा वे खरसिया क्षेत्र की आम जनता का विश्वास हासिल नहीं कर पायेंगे। भाजपा के भीतर रहकर ऐसा कर पाना फिलहाल तो एक असंभव सपना ही लगता है।

अघरिया वर्चस्व को तोड़ने की व्यावसायिक साजिश

एक चर्चा यह भी है कि ओपी चौधरी का राजनीति में आना कोई अप्रत्याशित घटना नहीं है वरन यह जिले की राजनीति में अघरिया वर्चस्व को तोड़ने की सोची-समझी व्यावसायिक साजिश है । यह जिला यद्यपि आदिवासी-दलित व पिछड़ावर्ग बहुल क्षेत्र है किंतु भाजपा के सत्ता में आने के बाद यहां की राजनीति में व्यावसायिक वर्ग का व्यापक दबदबा कायम हो गया । नन्दकुमार पटेल के अभ्युदय के बाद व्यावसायी वर्ग की तरह ही अघरिया समुदाय भी राजनैतिक व सामाजिक रूप से संगठित होने लगा था तथा यह समुदाय आज व्यावसायी वर्ग को हर कदम पर कड़ी टक्कर दे रहा है । यही कारण है कि दीगर समाज को टुकड़ों में बांटकर अपना सिक्का चलाने वाले सेठिया वर्चस्ववादी नेताओं के लिये *अघरिया एकजुटता* आंख की किरकिरी बन गयी है ।

कहा जा रहा है कि ओ पी चौधरी पर प्रदेश नेतृत्व की नजर होने की जानकारी मिलते ही खरसिया व रायगढ़ हाउस के व्यावसायिक नेता सक्रिय हो गये और इस मौके का लाभ उठाकर वे इसे अघरिया समुदाय को विभाजित करने के अवसर के रूप में इस्तेमाल करने की साजिश में जुट गये। मास्टर स्ट्रोक यह होगा कि पहले तो ओ पी चौधरी के साथ होने का ढोंग करके ये लोग इसका श्रेय लेंगे व उनके नाम पर अपनी रुचि के क्षेत्र में अघरिया समुदाय का समर्थन भी हासिल करेंगे और फिर षड्यंत्रपूर्वक भीतर ही भीतर उनकी जड़ों को खोखला कर देंगे। अंत में पराजय का पूरा ठीकरा अघरिया समुदाय के प्रतिस्पर्धी नेताओं पर फोड़कर खुद बरी हो जायेंगे।

ओपी फैक्टर का राजनीति में असर

रायगढ़ जिले की तीन विधानसभा सीटों में पिछड़ा वर्ग का निर्णायक असर है। खरसिया हाउस की चालबाजियों से परेशान होकर डॉ. शक्राजित नायक के कांग्रेस में चले जाने के बाद भाजपा में पिछड़ा वर्ग का कोई भी सशक्त नेता नहीं बचा था। डॉ जवाहर नायक की उपस्थिति भी बहुत कमजोर साबित हुई है। इसके उलट कांग्रेस में ठाकुर बंधुओं के अवसान के बाद कांग्रेस की राजनीति पिछड़ा वर्ग के इर्द-गिर्द केंद्रित हो गयी । इसका स्वाभाविक लाभ कांग्रेस को मिला था और एक समय जिले की दोनों सामान्य सीट पर पिछड़ा वर्ग से विधायक चुनकर आये। ओ पी चौधरी के रूप में भाजपा का प्रदेश नेतृत्व इस कमी को पूरा करके खरसिया सहित रायगढ़ , सारंगढ़ व नजदीकी चंद्रपुर विधानसभा सीट पर पिछड़ा वर्ग के असर का लाभ लेने की फिराक में है।

बढ़ने लगी हैं दिलचस्पियाँ

तमाम चर्चाओं व अटकलों के बीच अब इस बात का इंतजार है कि चौधरी साहब के भाजपा प्रवेश के बाद कब उनके प्रथम खरसिया आगमन को किस तरह भव्य आयोजन में तब्दील किया जायेगा ? इस बात का भी इंतजार है कि वे अपने चुनावी अभियान को कैसे आगे बढ़ाएंगे ? यह देखना भी दिलचस्प होगा कि खरसिया व रायगढ़ के धंधेबाज नेताओं द्वारा खरसिया विधानसभा हेतु बनाये गये चुनावी ढांचे की क्या भूमिका होगी और ओ पी चौधरी इन जमानासाज भाजपाइयों की चालबाजियों व कदम-कदम पर रचे जाने वाले षड्यंत्रों से बचकर आम जनता को अपने साथ कैसे व कितना जोड़ पाते हैं ?

फिलहाल संभावनायें व आशंकाएं तो उफान पर है और खरसिया विधानसभा सीट एक बार फिर हॉट सीट बन गई है । बहरहाल अभी जो कुछ चल रहा है, वह केवल ट्रेलर है पिक्चर तो अभी बाकी है मेरे यार !

 

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