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अदम्य साहस की गर्जना, योद्धाओं को सलाम, अब सरकार दिखाए उदारता, खोले दिल और हाथ!…पढ़िए वरिष्ठ पत्रकार डॉ. हिमांशु द्विवेदी की विशेष टिप्पणी

डॉ. हिमांशु द्विवेदी.  बचपन में कहावत तो यही पढ़ी थी कि जो ‘बादल गरजते हैं, वह बरसते नहीं’, लेकिन यहां तो व्यवहार में कुछ उल्टा ही घटित हो गया। बमुश्किल चार दिन पहले स्वभाव के विपरीत प्रदेश के मुखिया डा. रमन सिंह सार्वजनिक रूप से गरजे कि ‘नक्सली समर्पण करें या मरने के लिए तैयार रहें’ और वाकई एक दर्जन से ज्यादा खूंखार नक्सलियों को कल हमारे बहादुर जवानों ने यमलोक का रास्ता दिखा दिया।

लंबे इंतजार के बाद नक्सल मोर्चे पर ऐसा कुछ घटित हुआ जिससे अमनपसंद हर प्रदेशवासी का हौसला बढ़ा। इसलिए वंदन उन साहसी जवानों के हाथों का, जिन्होंने अर्से से बंदूकों में भरी गोलियों को सही निशानों पर पहुंचाया और अभिनंदन उन पांवों का जो पूरी रात घने जंगल में बाईस किलोमीटर चलने के बाद भी ना तो थके और ना ही डिगे।

कई दशकों से नक्सली मोर्चे पर जूझ रहे हमारे हजारों जवानों के हाथ में आई यह उपलब्धि असाधारण है। पुलिस बल की लंबे समय से यह रणनीति रही है कि बारिश के मौसम में फोर्स बैरक में ही रहती है क्योंकि जंगल की परिस्थितियां आक्रमण के लिए अनुकूल नहीं रहती। लेकिन, इस उपलब्धि ने यह मिथक तोड़ दिया। सही रणनीति और साहस का समायोजन क्या उपलब्धि दिला सकता है, यह पूरा अभियान इसकी मिसाल है।

नक्सल अभियान के प्रमुख दुर्गेश माधव अवस्थी ने इस कार्रवाई को आपरेशन प्रहार-4 करार दिया है। अर्से से अखबार नक्सलियों के हमले की खबरों से ही भरे रहे हैं, लेकिन पिछले कुछ समय से हमारे सुरक्षा बलों की कार्रवाई समाचार पत्रों के पहले पन्ने पर स्थान बना रही है। तकरीबन दो सप्ताह पहले बीजापुर जिले में भी हमारे जवानों ने नक्सलियों के कब्जे वाले इलाके में घुसकर उनके आठ साथियों को मार गिराया था।

कल के आपरेशन के प्रहार से तो ना केवल पंद्रह दुर्दांत नक्सली मारे गए बल्कि एक महिला समेत पांच लाख का इनामी कुख्यात नक्सली को जिंदा भी धर दबोचा। नक्सली कमांडर विंजाम हुंजा भी मरने वालों में शामिल है। आम तौर पर ऐसी कार्रवाइयों की विश्वसनीयता भी संदेह के दायरे में रहती है क्योंकि लाशें ही नहीं मिलतीं। इस बार तो सारे शव भी बरामद हो चुके हैं।

साथ ही हथियारों में भरमार बंदूकों के अलावा अनेक विदेशी राईफल समेत भारी मात्रा में गोला बारूद की बरामदगी हमारे जवानों का हौसला और जनता का विश्वास बढ़ाने में सहायक सिद्ध हुई है। यह समय अपने जवानों की पीठ ठोंकने और अफसरों की सराहना करने का है। जो भी जवान इस हमले को अंजाम तक पहुंचाने में भागीदार रहे हैं, उनको प्रोत्साहित करने में सरकार को केवल जुबानी जमा-खर्च ना करते हुए हाथ और दिल भी खोलने में उदारता दिखानी चाहिए। जो भी इस अभियान में हिस्सेदार रहे हैं उन्हें नकद ईनाम के साथ-साथ समय पूर्व पदोन्नति देने में भी पहल अपेक्षित है। जिन परिस्थितियों में हमारे जवान अपना जीवन इन नक्सली इलाके में बसर कर रहे हैं, उसके एवज में हम जो कुछ भी कर दें, वह कम ही माना जाना चाहिए।

हर क्षण हमले की आशंका के बीच वह पूरी सजगता के साथ जिस दिलेरी से गत अनेक वर्षों से अपना दायित्व निर्वहन कर रहे हैं, उसी के चलते हम अपने घरों में निश्चिंतता की नींद सो पा रहे हैं। हाथ में थमी उनकी बंदूक हर खतरे की आहट पर तन तो जाती है लेकिन चल नहीं पाती। इसका कारण महज यह भय रहता है कि कोई बेकसूर इसका शिकार न हो।

घने जंगल की जमीन पर जब वह पैर रखते हैं तो उनका हर कदम इस आशंका के साथ होता है कि वह किसी बारूदी सुरंग पर तो नहीं रखने जा रहा। इसके बावजूद भी उनके कदम थमते नहीं हैं। अगर कदम थमते होते तो रात में बाईस किलोमीटर का लंबा सफर तय कर इस अभियान को अंजाम तक ना पहुंचा पाते। यह बदलाव बड़ा महत्वपूर्ण पहलू है।

यह बताता है कि लंबे समय से अर्ध सैन्य बलों और स्थानीय पुलिस के बीच जो समन्वय की कमी खल रही थी, वह दूर हो गई है। अब मुठभेड़ अनायास नहीं हो रही हैं। हमारे जवान उनके इलाकों के अंदर घुस कर कार्रवाई करने में सफल हो रहे हैं। कल का अभियान भी नक्सली शिविर पर हमले के रूप में ही सामने आया है।

दक्षिण सुकमा के नलकातोंग इलाके में मौजूद जिस नक्सल शिविर पर हमला किया गया, वहां कोंटा, गोलापल्ली और भेज्जी इलाके में सक्रिय रहे नक्सलियों की मौजूदगी थी। नक्सल मुद्दे पर लड़ाई अब निर्णायक मोड़ पर आती दिख रही है। मोमबत्ती जलाने की जगह शत्रु के सीने में गोलियां दागने का सिलसिला शुरू हो गया। शत्रु भी कौन? वह जो अनगिनत मासूमों की असमय मौत के जिम्मेदार हैं।

जिन्होंने सामाजिक परिवर्तन का लबादा ओढ़ निरीह और निरपराध हजारों जिंदगियों से उनके चेहरे की मुस्कराहट छीन रखी है। जिन्होंने लोकतंत्र के प्रति विश्वास आवाम के विश्वास को अपने जूतों तले कुचलने का दुस्साहस किया हुआ है। जिन्होंने स्कूल, रोड, अस्पतालों को तबाह कर हजारों साल से शोषित आदिवासियों के जीवन में उम्मीदों का दिया जलने से पहले ही बुझा डालने की हिमाकत की हुई है।

व्यवस्थित औद्योगिकीकरण के माध्यम से विकसित सभ्यता का हिस्सेदार बनने की हर संभावना को जिन्होंने जमने से पहले ही मार डाला। ऐसे लोगों को उनके अंजाम तक पहुंचाने का संकल्प महज किसी सरकार का नहीं बल्कि पूरे समाज का है। इसलिए हमारे जवानों की इस उपलब्धि की सराहना महज सरकार की ही नहीं हम सबकी जिम्मेदारी है।

यह उपलब्धि उत्साहित करने के साथ-साथ हमें आशंकित करती है। इस घटना की प्रतिक्रिया के अंदेशों को खारिज नहीं किया जा सकता। हमारे जवानों के ऊपर खतरा और बढ़ गया है। लिहाजा तमाम सुरक्षा बलों केे बीच और अधिक समन्वय तथा सजगता बनाए रखना समय की मांग है। एक बार पुन: नमन उन हजारों जवानों के साहस और समर्पण को, जो बस्तर को नक्सली आतंक से मुक्त कराने की खातिर अपने जीवन को जोखिम में डाले हुए हैं।

साभार हरिभूमि

( लेखक हरिभूमि ग्रुप के प्रबंध संपादक हैं,  आलेख में व्यक्त विचार लेखक के निजी विचार हैं )

 

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